वर्तमान शिक्षा व्यवस्थाओं में ख़ामियाँ: भारत गुरुओं का देश कहा जाता है। आज जहाँ शिक्षा का स्तर बहुत ही गिर गया है। हम अपनी पुरानी एवं प्रामाणिक मूल विद्या को खोते जा रहे है। मैं यह मानता हूँ की वर्षों की गुलामी ने हमारी मूल संस्कृति को झिन्न -भिन्न कर दिया है। आज़ादी मिलने के बाद भी, आज हम अपनी मूल शिक्षा में वापस नहीं आ पाए है। जिसका सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों द्वारा सिखाई गई नीति है। जिसे हमारे राजनेता आगे बढ़ाते हुए, उसी मार्ग पर चल रहे है। वे अपनी राजनीतिक लाभ के लिए इसे तहस-नहस कर दिया है। जो आज केवल डिग्रियां बांटने का बाजार बन चूका है।
आज शिक्षा देने के नाम पर तमाम संसाधन विकसित किये जा चुके है। सरकार शिक्षा स्तर को ऊँचा उठाने के नाम पर प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रूपया खर्च कर देती है। कहने को शहरी और ग्रामीण शिक्षा व्यवस्थाओं पर करोड़ों खर्च करने के बाद भी शिक्षा स्तर को उपर उठा नही पा रही है। और तो और सरकार की लचर व्यवस्थाओं ने बहुसंख्यक में शिक्षा माफियों और शिक्षा व्यवसायी-यों को जन्म दे डाला है, जिस पर सरकार का कोई विशेष नियत्रंण नही है।
इन कारणों की वजह से जो व्यवस्थाएं जन्म ले रही है। वह नकल-ची बेरोजगार युवाओं को जन्म देती जा रही है। जिनके पास न तो शिक्षा है और न ही किसी प्रकार का व्यावसायिक कौशल। जिसके कारण देश के युवा खुद को नक्सलवाद, आतंकवाद के जाल में फंसकर गुमराह हो रहे हैं। देश का युवा खुद को गलत मार्गदर्शन में आगे बढ़ा रहा है। जैसा कि हम सब जानते है। आये दिन देखने और सुनाने को मिलता है कि फ़र्ज़ी प्रमाण पत्रों के आधार पर नौकरी कर रहे है। यह सब क्या है? आज इतनी आधुनिकता के बाद भी अपने शैक्षिक प्रमाण-पत्र बदलकर शिक्षक, राजनेता, अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर बनकर लोगों को धोखा दे रहे हैं। सरकारी तंत्र का अहम हिस्सा बनकर, भ्रष्ट बनाने में जुटे है। इन्ही सब की वजह से, शिक्षा व्यवस्थाओ में विभिन्न समस्याओं को जन्म दे दिया है।
एक रिपोर्ट के अनुशार
- पांचवी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा अपना नाम भी नही लिख पा रहा है।
- विद्यालय में शिक्षक नही है, यदि नियुक्त है, तो आते नही है, आते भी है, तो उपस्थिति पंजी में हस्ताक्षर करके वापस चले जाते है।
- विद्यालय है, किन्तु एक ही कमरे में तीन या चार कक्षाएं चल रही है।
- एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट दस साल से जारी हो रही है, हर बार यह रिपोर्ट बताती है कि पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे दूसरी का पाठ नही पढ़ पाते है। आठवीं के बच्चों को जोड़ना-घटाना-भाग देना नही आता है। इस साल की यही रिपोर्ट कहती है कि तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 42.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा (एक) की सामग्री पढ़ पाते है।
- कक्षा आठ में पढ़ने वाले 73.1 प्रतिशत कक्षा (दो) की सामग्री पढ़ पाते है।
- कक्षा तीन के 27.7 प्रतिशत बच्चे ओ अंको वाला घटाना कर पाते है, जबकि कक्षा पांच के 26 प्रतिशत बच्चे ही सामान्य भाग दे पाते है।
भारत की सेंटर फार बजट गवर्नेंस एंड अकाउंटेबिलिटी(सीबीजीए) ने चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राय) के सहयोग से भारत में शिक्षा पर लोक व्यय पर एक बहुत गंभीर अध्ययन जारी किया। यह अध्ययन बताता है कि भारत के राज्यों में वास्तव में स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर सरकारों की तरफ से कितनी राशि खर्च की जा रही है,?
पृष्ठभूमि स्वतंत्रता के बाद से ही शिक्षा के लोक व्यापीकरण और गुणवत्ता को सुनिश्चित किए जाने की जरूरत महसूस की जा रही थी। वर्ष 1964 में कोठारी कमीशन ने कहा था कि सरकार को सकल राष्ट्रीय उत्पाद की छह प्रतिशत हिस्सा पर खर्च करना चाहिए और यह लक्ष्य वर्ष 1985-86 तक हासिल कर लिया जाना चाहिए। परन्तु यह लक्ष्य हासिल नही हुआ, वर्ष 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भी इस जरूरत को दोहराया।
इसके बाद निःषुल्क और अनिवार्य शिक्षा का आधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल हो गया और वर्ष 2009 में इसका कानून भी बन गया। इस दौरान दो बातें सामने आती है। पहला कि कोठारी कमीशन की अनुशंसा की उम्र 53 साल हो चुकी है, पर वह आज तक लागू नही हुई। दूसरी बात यह कि क्या नए संदर्भो में भी, जिसमें शिक्षा के प्रतिमान, स्वरूप, चरित्र और मकसद पूरी तरह से बदल गए है। उसमें क्या सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत व्यय पर्याप्त होगा? अब यह माना जा रहा है कि सरकारों को अब सकल घरेलू उत्पाद का दस प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर व्यय करना होगा।
शिक्षा पर लोक व्यय (यानी केन्द्र राज्य सरकारों द्वारा किया जाने वाला खर्च): सीबीजीए की रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2004-05 में भारत में स्कूली शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.1 प्रतिशत व्यय हो रहा था। जिस साल (2009-10) शिक्षा का अधिकार कानून आया, उस साल यह व्यय 2.5 प्रतिशत था पिछले 14 सालों में वर्ष 2013-14 में सबसे ज्यादा आवंटन (3.3 प्रतिशत) हुआ, पर इसके बाद फिर सरकारों ने शिक्षा पर व्यय कम करना शुरू कर दिया। जीडीपी के संदर्भ में वर्ष 2015-16 में कुल 2.68 प्रतिशत के बराबर का आवंटन किया गया। ऐसा लगता है कि मानव विकास के लिए जरूरी क्षेत्रों पर कम और गैर-जरूरी क्षेत्रों पर सरकारंस ज्यादा खर्च कर रही है।
राज्यों की स्थिति: यह देखना जरूरी है कि सरकारों ने अपने बजट से स्कूली शिक्षा के लिए जो आवंटन और व्यय किया। वह जीएसडीपी का कितना हिस्सा बनता है। पिछले चार सालों मे जीएसपीडी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) के संदर्भ में स्कूली शिक्षा पर व्यय लगातार कम हुआ है। इस अध्ययन से पता चलता है कि मध्य प्रदेश में वर्ष 2012.-13 में इस पर 4.6 प्रतिशत व्यय किया गया था। किन्तु यह आवंटन वर्ष 2013-14 में घट कर 4.3 प्रतिशत, फिर अगले साल 3.4 प्रतिशत पर आ गया। वर्ष 2015-16 में शिक्षा पर लोक व्यय 3.7 प्रतिशत रहा। नगालैंड (2015-16 में) ने जीएसडीपी का 13.2 प्रतिशत, अरूणाचल प्रदेश ने 7.2 प्रतिशत और असम ने 5.6 प्रतिशत आवंटन किया।
कम संसाधनों के बावजूद बिहार स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए संघर्ष कर रहा है। वहां वर्ष 2012 में 5.5 प्रतिशत, वर्ष 2013 में 4.7 प्रतिशत, वर्ष 2014 में 6.2 प्रतिशत और वर्ष 2015 में 6.6 प्रतिशत आवंटन किया गया। केवल बिहार ही ऐसा बड़ा राज्य है, जिसने 6 प्रतिशत के स्तर को छुआ है।
उत्तर प्रदेश में इस चार सालों में शिक्षा पर लोक व्यय जीएसडीपी का 4.9 प्रतिशत, 4.1 प्रतिशत और 5.0 प्रतिशत रहा। ओडिसा ने जीएसडीपी का 3.3 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत और 3.9 प्रतिशत आवंटन किया। राजस्थान ने 3.2 प्रतिशत, 3.2 प्रतिशत, 3.5 प्रतिशत और 3.5 प्रतिशत आवंटन किया।
सबसे खराब हालत वाले राज्य: पंजाब जीएसडीपी के केवल 2.1 प्रतिशत तक की व्यय स्कूली शिक्षा पर कर रहा है। गोवा ने 1.9 प्रतिशत से 2.3 प्रतिशत, कर्नाटक ने 2.5 प्रतिशत से 2.2 प्रतिशत, गुजरात ने 2.2 प्रतिशत और तमिलनाडु ने 2.4 प्रतिशत से 2.1 प्रतिशत संसाधन स्कूली शिक्षा को आवंटित किये। आंध्र प्रदेश की स्थिति भी बहुत अच्छी नही है। वहां 2.7 प्रतिशत से 2.3 प्रतिशत का आवंटन हुआ, जरा सोचिए कि देश में आर्थिक विकास के गढ़ महाराष्ट्र बड़े सूचना प्रौद्योगिकी के केन्द्र वाले राज्यों (कर्नाटक और आंध्र प्रदेश ), शिक्षा के पारंपरिक केंद्र कोलकता वाले पश्चिम बंगाल में स्कूली शिक्षा किस तरह ध्वस्त की जा रही है।
राज्य के बजट में स्कूली शिक्षा का हिस्सा:सीबीजीए के अध्ययन से पता चलता है कि ज्यादातर राज्यों में पिछले चार सालों में शिक्षा के बजट की हिस्सेदारी कम होती दिख रही है।
- महाराष्ट्र- वर्ष 2012-13 में कुल राज्य बजट का 19.9 प्रतिशत स्कूली शिक्षा पर व्यय हुआ। यह आवंटन घट कर वर्ष 2015-16 में 18 प्रतिशत पर आ गया।
- बिहार- वर्ष 2012-13 में कुल राज्य बजट का 23.5 प्रतिषत शिक्षा के लिए था, जो वर्ष 2015-16 में 17.7 प्रतिशत रह गया।
- राजस्थान- वर्ष 2012 में राज्य बजट में शिक्षा की हिस्सेदारी 18.8 प्रतिशत से घट कर 16.7 प्रतिशत पर आ गई।
- उत्तर प्रदेश- वर्ष 2012-13 में शिक्षा के लिए बजट का 22.1 प्रतिशत हिस्सा खर्चा किया गया था, किन्तु यह चार साल में घट कर 17.2 प्रतिशत पर आ गया।
- मध्य प्रदेश- यह तय है कि मध्य प्रदेश सरकार सामाजिक बदलाव के विषयों को प्राथमिकता नही दे रही है। चार सालों में शिक्षा के आवंटन राज्य बजट का हिस्सा 20.7 प्रतिशत से गिर कर 15.9 प्रतिशत पर आ गया।
- आंध्र प्रदेश- राज्य ने वर्ष 2012 में 15.9 प्रतिशत आवंटन किया था, जो घट कर 12 प्रतिशत पर आ गया।
- तमिलनाडु- वर्ष 2012 में शिक्षा का हिस्सा 14.7 प्रतिशत से घट कर 13.4 प्रतिशत पर आ गया।
- गुजरात- आर्थिक उन्नति का दावा करने वाले गुजरात में राज्य बजट में शिक्षा का हिस्सा 16 प्रतिशत से गिर कर 14.9 प्रतिशत पर आ गया।
प्रति बच्चा शिक्षा व्यय: अखिल भारतीय स्तर पर स्कूली शिक्षा के लिए 12717 रूपये प्रति बच्चा प्रति वर्ष का आवंटन हुआ था वर्ष 2015-16 में हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह औसतन व्यय और आवंटन है और कई बच्चे अब भी स्कूल से बाहर है। इस अध्ययन से स्कूली शिक्षा पर होने वाले व्यय में दबी हुई गैर-बराबरी सामने उभर कर आती है, जरा दखिये कि सिक्किम में एक बच्चे की शिक्षा पर 59791 रूपये और मिजोरम में 35698 रूपये का व्यय तय किया गया। गोवा में वर्ष 2015-16 में शिक्षा प्रति बच्चा व्यय 38751 रूपये था, जबकि बिहार में 8526 रूपये, अन्य राज्यों का व्यय इस प्रकार है- केरल- 23566, महाराष्ट्र- 18035, दिल्ली- 17691, छत्तीसगढ – 17223, तमिलनाडु- 16939, गुजरात-15411, मध्य प्रदेश 11330, उत्तर प्रदेश -9167, झारखण्ड-9169 रूपये/बच्चा/वर्ष, प्रति छात्र व्यय बनाम प्रति बच्चा व्यय।
जब यह देखा जाता है कि एक छात्र के हिसाब से कितना आवंटन हुआ। तब कई अन्य विसंगतियों के बारे में अंदाजा लगता है। भारत के स्तर पर वर्ष 2014-15 में एक बच्चे के लिए औसतम व्यय 10700 रूपया था, पर प्रति छात्र आवंटन 13974 रूपये था। इसी तरह मध्य प्रदेश में एक बच्चे के लिए व्यय 8840 रूपये था पर एक छात्र के लिए 11771 रूपये था। यह अंतर इसलिए दिखाई देता है क्याकि अब भी कई बच्चे स्कूल व्यवस्था से बाहर है। अतः यह नी माना जा सकता है कि प्रति बच्चा व्यय ही प्रति छात्र व्यय होगा।
कहां खर्च होता है शिक्षा बजट?
शिक्षकों का वेतन: क्या वास्तव में भारत में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने की मंषा है? यही सही है कि शिक्षक, शिक्षा व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं, पर यह समझा जाना जरूरी है कि शिक्षकों के वेतन के खर्चे के बाद वास्तव में शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए कितना धन बचता है।
बिहार में स्कूली शिक्षा के कुल बजट का 51.6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षकों के वेतन पर खर्चा होता है इसके बाद झारखण्ड में 54 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 60.8 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 63.7 प्रतिशत, महाराष्ट्रा में 68.8 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 74.5 प्रतिशत और राजस्थान में 80.4 प्रतिशत बजट केवल शिक्षकों के वेतन पर खर्च होता है।
शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण: शिक्षा की गुणवत्ता में सबसे अह्म स्थान है शिक्षकों के प्रशिक्षण का, यह एक कड़वा सच है कि शिक्षक प्रशिक्षण पर सरकारों की कोई रूचि नही है। मध्य प्रदेश में इस काम पर शिक्षा बजट का 0.20 प्रतिशत, ओडिशा में 0.30 प्रतिशत, तमिलनाडु में 0.30 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 0.28 प्रतिशत, राजस्थान में 0.31 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 0.40 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 0.56 प्रतिशत ही व्यय किया जाता है। बिहार एक ऐसा राज्य है जो शिक्षक प्रशिक्षण पर कुल शिक्षा बजट का 1.60 प्रतिशत हिस्सा व्यय करता है।
निरीक्षण और निगरानी की व्यवस्थाः- एक मायने में पारदर्शिता, जवाबदेही और सुधार के नजरिए से शिक्षा व्यवस्था में निरीक्षण और निगरानी की व्यवस्था को मजबूत बनाए जाने की जरूरत रही है। इस काम में शाला प्रबंधन समिति की भी अहम भूमिका होती है। परंतु हमारे यहां यह पहलू पूरी तरह से ध्वस्त है।
छत्तीसगढ में शिक्षा व्यवस्था के निरीक्षण और निगरानी के लिए 0 प्रतिशत, कर्नाटक में 0.04 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 0.05 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 0.30 प्रतिशत, महाराष्ट्र 0.50 प्रतिशत, झारखण्ड 0.90 प्रतिशत, राजस्थान 0.80 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते है। तमिलनाडु और ओडिशा इस मद में 1.20 प्रतिशत व्यय करते है।
शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए व्यय: सभी के गुणवत्तपूर्ण शिक्षा मिले, इसके लिए जरूरी होता है शिक्षा के रास्ते में आने वाली बाधाओं से पार पाना। मध्य प्रदेश बिहार में जब बच्चों को साइकिल दी गई, तो स्कूल में बच्चों के नामांकन और उपस्थिति में जबरदस्त इजाफा हुआ। इसके साथ ही छात्रवृत्ति और छात्रावासों की व्यवस्था ने भी बड़ी भूमिका निभाई, बहरहाल अब भी छात्रावासो की स्थिति और कई स्तरों पर गैर-जवाब देहिता के कारण बच्चों तक जरूरी लाभ नही पहुंच पाते है।
बिहार शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए कुल स्कूल शिक्षा बजट का 21.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 12.1 प्रतिशत, ओडिशा 11.8 प्रतिशत और मध्य प्रदेश 10.1 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते है। इसके दूसरी तरफ महाराष्ट्र 1.9 प्रतिशत, कर्नाटक 4.7 प्रतिशत, तमिलनाडु 7.8 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ 7.9 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते है।
अधोसंरचना पर व्यय: स्कूलों की ढांचागत-अधोसंरचना व्यवस्थाओं को बेहतर करना आज एक बड़ी जरूरत है। तमिलनाडु इस पर अपने कुल शिक्षा बजट का 2.6 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 3.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र 3.8 प्रतिशत, राजस्थान 5.4 प्रतिशत, मध्य प्रदेश 6.3 प्रतिशत, बिहार 7.2 प्रतिशत, झारखण्ड 12.5 प्रतिशत और आडिशा 13.3 प्रतिशत व्यय कर रहा है।
शिक्षा व्यवस्था के महत्वपूर्ण पहलू: यह अध्ययन बताता है कि भारत में 4.34 प्रतिशत बच्चे बुनियादी शिक्षा के स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं। मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 10.14 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते है। जबकि झारखंड में 6.41 प्रतिशत और राजस्थान में 8.39 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते है। स्थिति माध्यमिक शिक्षा कि स्तर पर गंभीर हो जा रही है। ओडिशा में 49.5 प्रतिशत, कर्नाटक में 27.6 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 26.5 प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा छोड़ देने के लिए मजबूर है।
भारत में लगभग एक तिहाई बच्चे माध्यमिक कक्षा से निकल कर उच्चतर माध्यमिक कक्षा में प्रवेश नही कर पाते है। बिहार में 55.6 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 41.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 54.3 प्रतिशत बच्चे ही उच्चतर माध्यमिक कक्षा में जा पाते है। मौजूदा विकास की परिभाषा में समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लक्ष्य कही पीछे छुट रहा है। कही ऐसा तो नही है कि सरकार केवल कौषल शिक्षा की तरफ बढ़ने को मन बना चुकी है और तार्किक-सक्रिय नागरिक गढ़ने वाली शिक्षा के प्रति वह उदासीन होती जा रही है। कही ऐसा तो नही है कि बस बाजार की जरूरत को पूरा करने वाले कारीगर पैदा करने वाली नीतियां बनती रहें और बुनियादी शिक्षा का लक्ष्य विकास की बलि चढ़ा दिया जाए। सच तो यह है कि शिक्षा के प्रति राज्य की संवेदनशील का एकमात्र पैमाना है- लोक शिक्षा व्यवस्था यानी सरकारी व्यवस्था में होने वाला विकास, शिक्षा का निजीकरण कभी नागरिक जिम्मेदायिं को पूरा नही करेगी। यह भूमिका संवैधानिक रूप से सरकारों को निभानी होगी।
सचमुच हम समाज के शिक्षित नही बना पा रहे है। स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है, अखिर यह स्थिति खराब क्यों? क्या शिक्षक नही चाहते हैं कि बच्चे शिक्षित इंसान न बनें? जब दशकों से सरकारों को यह पता है कि स्कूलों में शौचालय नही हैं या पीने का पानी नहीं या शिक्षक नही है, तो फिर भी स्थिति क्यों नही बदली? स्थिति इसलिए नही बदलती क्योंकि शिक्षा का मामला राजनीति और नीति के स्तर पर जुबानी प्रतिबद्धता का विषय है, क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता का नही।
इस पर भी पिछले 26 सालों में हमारी सरकारों ने मान लिया है कि शिक्षा का निजीकरण ( शिक्षा एक मुनाफा देने वाला बाजार है) ही सबसे उचित विकल्प है। संविधान के भीतर मौलिक अधिकार बनने के बावजूद, इस विषय को सबसे ज्यादा सरकारों ने ही नजर अंदाज किया है। सरकारें एक सौ रूपये में से केवल 25 पैसे निगरानी और निरीक्षण पर और 40 पैसे शिक्षकों के प्रशिक्षण पर खर्च करती हैं। भारत में बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में ही अभी 5 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं जबकि 1.05 लाख सरकारी स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे पर है।
इन सब बातों का मतलब यह नही है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था को बंद कर दिया जाए। इस विश्लेषण कामकसद यह है कि हम लोक शिक्षा को मजबूत, जवाबदेह और गुणवत्तापूर्ण बनाने की दिशा में आगे बढ़े, वर्ष 2014-15 के अनुसार देश में प्राईमरी विद्यालय की संख्या 847118, उच्च प्राईमरी 425094, माध्यमिक विद्यालय की संख्या 135335, उच्च माध्यमिक 109318, जिसमें प्राइवेट विद्यालयों की कुल संख्या 339000 है।
नवोदय वं केन्द्रीय विद्यालयों की बात करें तो उनके बेहतरीन परिणाम और प्रतियोगी परीक्षाओं में इसके बच्चों का उम्दा प्रदर्शन इस बात का सबूत है कि सरकार अगर सही नीति से योजनाएं को लागू करे तो सरकारी संस्थाएं भी कमाल का प्रदर्शन कर सकती है। सरकार ने नवोदय विद्यालय समिति क लिए 2015-16 में 1905 करोड़ का बजट दिया था। ये बजट देश के कुल 589 नवोदय विद्यालयों के लिए था जहाँ 2 लाख बच्चे पढ़ते हैं। इस हिसाम से अगर देखें तो एक बच्चे पर सरकार एक साल में 85,000 रूपए खर्च करती है। इस तरह केंन्द्रीय विद्यालय संगठन जिसमें 1099 स्कूल हैं और इन स्कूलों में 11.7 लाख बच्चे पढ़ते हैं इनके लिए सरकार ने 3190 करोड़ रूपए का बजट निर्धारित किया था यानि एक बच्चे के लिए 27150 रूपए।
शिक्षा समाधान नीति 2019
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में थोड़े परिवर्तनों से हम कोई सुधार नहीं कर सकते है। आज हमें शिक्षा तंत्र में अमूल चूक परिवर्तन करना होगा। या यूँ कहे पूर्ण परिवर्तन की जरुरत है। इसलिए हमने शिक्षा में पूर्ण परिवर्तन लाने के लिए आधुनिकता के आधार पर एक पारदर्शी समाधान नीति तैयार किया है।
जिसके अंतर्गत हमने देश के सभी शिक्षा बोर्डों का एकीकरण किया है। सरकारी और निजी सभी विद्यालयों का एकीकरण किया है। शिक्षकों और छात्रों का एकीकरण किया है।
हमारी सरकार भारतीय संस्कृति और परंपरागत शिक्षा निति को पुनः स्थापित करेगी। हम देश की महान विभुतियों और वेदों, पुराणों पर आधारित खोज और व्यावसायिक विषयों को पाठ्यक्रमों में सम्मलित करेंगे। ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी संस्कृति, धरोहर एवं इतिहास पर गर्व करें। और आत्मनिर्भर बन सके। भारत महापरिवार पार्टी शिक्षा व्यवस्था को जीवंत बनाने के लिए आधुनिक स्तर पर एक ऐसी प्रणाली विकसित करने जा रही है, जिसके अर्न्तगत शिक्षा सरल और सुलभ होने के साथ देश के प्रत्येक व्यक्ति तक आसानी से पहुँच सकेगी।
छात्र प्रबंधनः- इसके अर्न्तगत देश के समस्त बच्चों का प्रबंधन एक कोर सॉफ्टवेयर प्रणाली से किया जाएगा। जो इस प्रकार निम्नवत हैः-
सर्वप्रथम सरकार National Intelligence Quotient का गठन किया जायेगा। जिसके तहत देश के हर बालक एवं माता पिता का मानसिक, सोशल, अस्ट्रो के स्तर पर एक जाँच किया जायेगा। इस प्रणाली से बालक की पूर्ण मानसिक स्थिति और रुचियों के आधार पर एक रिपोर्ट दिया जायेगा। बालक के माता पिता को एक गाइड लाइन दिया जायेगा। साथ ही हर बालक को एक आईडी संख्या दी जाएगी। जिस आधार पर वह स्कुल में प्रवेश पा सकेगा।
यह विभाग समय-समय पर बालक और उसके माता-पिता की अनुभव स्थिति के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कर बालक को दिए गए आई डी से जोड़ता रहेगा। इस प्रणाली का एक मकसद है कि देश का हर बालक एक स्वावलम्बी नागरिक बन सकें।
नआईक्यू के टेस्ट उपरांत हर बालक/बालिका को एक संख्या दी जाएगी। बालक इसी संख्या पुष्टि आधार पर स्कूल में पंजीकृत किया जायेगा। यही उस बालक की छात्र आई डी संख्या होगा। इसी संख्या के आधार पर प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा लेने तक विद्यालयों में प्रवेश पाया जा सकेगा।
इस प्रणाली से सरकार के विभाग छात्र/छात्रा से सम्बंधित सभी शैक्षिक विवरणों की पुष्टि त्वरित कर सकेगा। सरकारी विभाग और निजी संस्थाए नौकरी के आवेदनों के लिए आवेदनकर्ता द्वारा केवल छात्र आई डी संख्या से ही समस्त विवरणों की पुष्टि कर सकेगा। यह प्रणाली बेहद ही आसान होगा। जिससे कोई भी व्यक्ति फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर न ही कोई नौकरी कर पायेगा और न ही कोई व्यवसाय ही कर पायेगा।
भारतीय पहचान संख्या के आधार पर यह ज्ञात होता रहेगा कि देश में बालक/बालिकाओं की क्या संख्या है? यह भी स्पष्ट होगा कि देश में आनाथ, बेसहारा तथा गरीबी रेखा में रहने वाले परिवार के बच्चों की संख्या कितनी है ? इस प्रकार हमारी सरकार उनके जीवन यापन के साथ उन्हें आत्मनिर्भर बनाने कर हर सम्भव प्रयास करेगी।
इस प्रणाली विद्यालयों में छात्र का प्रवेश, उपस्थिति आदि के आकड़े स्पष्ट होंगे। विद्यालय और संस्थाओं द्वारा तमाम फर्जी व्यवस्थाओं का अंत होगा। हम एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था को जन्म देंगे। हम एक सस्ती शिक्षा का विस्तार करेंगे। जिससे तमाम शिक्षा माफियों का अंत होगा।
बोर्डो का प्रबंधनः- हमारी सरकार देश में संचालित सभी बोर्डो जैसे : आईसीएससी, सी.बी.एस.सी, एस.एस.सी. राज्य स्तर के बोर्डे, आदि का एकीकरण करेगी। सभी बोर्डों के पाठ्यक्रम विषयों का समायोजन किया जायेगा। भारत की विविधिता, ज्ञान विज्ञानं, संस्कृति, वेद विज्ञानं, साहित्य, उपनिषद, गणितीय विज्ञानं, विश्व एवं भारत की विभिन्न भाषाओँ के आधार पर एक ऐसे पाठ्यक्रमों की रचना की जाएगी। जिससे हर क्षेत्र में बालक का सर्वागीण विकास सम्भव हो सके। जो सयुक्त रूप से एक बोर्ड के रूप में काम करेगा। जिसका सञ्चालन केंद्र और राज्यों में दिए गए कुछ अधिकारों द्वारा किया जायेगा।
बोर्ड एक ऑनलाइन प्रक्रिया के जरिए स्कूल को मान्यता देगा। जिसके तहत, बोर्ड द्वारा जारी किए गए आवेदन के माध्यम से, स्कूल से संबंधित विवरणों को पूरा करने के तुरंत बाद मान्यता दी जाएगी।
विद्यालय प्रबंधन :
आप सभी वर्तमान में सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों की स्थिति से भली भांति अवगत है। भारतीय पहचान प्रणाली से यह ज्ञात किया जा सकेगा कि किस क्षेत्र में कितने बालक और बालिकाएं है। उसके अनुसार विद्यालयों का विस्तार किया जायेगा। हम देश की सभी प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालयों को मार्डन विद्यालय के रूप में परिवर्तित किया जाएगा। जो निजी समिति द्वारा संचालित किया जायेगा। जिस क्षेत्र के वे बच्चे जो गरीबी रेखा से आते है। प्रति बच्चा का समस्त फीस, भोजन, ड्रेस आदि के सभी खर्च विद्यालय को दिया जायेगा । जिसपर सरकार का पूर्ण नियंत्रण होगा।
बोर्ड चार ग्रेड ( A, B, C, D ) में बाँट कर विद्यालय को मान्यता प्रदान करेगी। विद्यालय मान्यता एवं ग्रेड पर्याप्त जगह, सुबिधाये, और सुरक्षा मानकों के आधार पर तय किया जायेगा। विद्यालय ग्रेड के आधारों पर रजिस्ट्रशन, तमाम प्रकार के फीस आदि का मानक सरकार तय करेगी। इसके लिए बोर्ड द्वारा हर विद्यालय को एक ऑनलाइन पैनल प्रदान करेगा। जिस पर विद्यलय रजिस्ट्रशन, फीस, स्टाफ, अध्यापक, छात्र आदि का प्रबंधन करेगा। इस प्रणाली के आने से विद्यालयों द्वारा मनमाने ढ़ंग से वासूले जा रहे भारी भरकम फीस पर नियंत्रण किया जायेगा और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त होगा।
शिक्षक प्रबंधन : भारत में शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं की कोई कमी नही है अच्छें एवं सच्चे मार्गदर्शक आज भी है लेकिन हमारी भ्रष्ट शिक्षा नीति एवं देश की राजनीती ने, इसे शिक्षा माफियों की जागीर बना दिया है। और एक ऐसा वातावरण तैयार कर दिया गया है, जहाँ शिक्षा का आधार केवल अच्छे नम्बरों से पास होना, जैसी भी स्थिति हो। भारत महापरिवार पार्टी एक ऐसी आधुनिक व्यवस्था विकसित किया है कि जिसके अर्न्तगत योग्य शिक्षकों की चयन प्रक्रिया आसान हो जाएगी।
बोर्ड द्वारा शिक्षकों का एक पैनल बनाया जायेगा। जिसके अंतर्गत देश के सभी सरकारी एवं निजी रूप से कार्यरत शिक्षकों को रखा जायेगा। शिक्षक की योग्यता और विशेषग्यता के अनुसार वेतनमान सुनिश्चित किया जायेगा है। इस प्रकार हम देश के योग्य शिक्षकों की प्रतिभा का उचित सम्मान कर पाएंगे। फर्जी और केवल डिग्री धारक शिक्षकों का अंत होगा।
हमारी सरकार शिक्षकों का मिनिमम बेतन 25 हजार रुपया सुनिश्चित करेगी। बोर्ड द्वारा हर तिमाही शिक्षकों का टेस्ट लिया जायेगा। वर्ष में कुल चार टेस्ट होंगे। कुल योग में ९० प्रतिशत अंक प्राप्त करना अनिवार्य होगा। ऐसा होने पर ही शिक्षक के वेतन में पांच प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी। यह प्रक्रिया पांच वर्षों तक किया जायेगा। इस प्रणाली से शिक्षकों की योग्यता को बढ़ावा दिया जायेगा।
विश्वविद्यालय प्रबंधन : देश में लगभग 127 डीम्ड विश्वविद्यालय और ६६५ विश्वविद्यालय है और 38498 से अधिक मन्यता प्राप्त महाविद्यालय स्थापित है। हम छात्रों की जनसँख्या के आकड़ों के अनुसार विश्व विद्यालय और सम्बंधित महाविद्यालयों को विस्तारित करने का काम करेंगे। साथ ही इन महा विद्यालयों में सभी विषयों और सुबिधाओं के साथ स्थानीय परम्परिक हुनर सम्बंधित विषय को सम्मलित भी किया जायेगा।
जैसा मैंने उपरोक्त में कहा है कि छात्र आईडी संख्या द्वारा ही विश्वविद्यलय में प्रवेश पा सकेगा। हमारा प्रयास होगा कि प्रत्येक महाविद्यालय सभी विषयों से सुसज्जित हो। जिससे छात्र अपनी रूचि के अनुसार विषयों को चुन सके। हमारा मानना है कि तभी हम युवाओं को आत्मनिर्भर बना सकते है। जब उनकी रूचि के अनुसार शिक्षण और प्रशिक्षण व्यवस्था स्थापित होगी।
प्रौद्योगिकी शिक्षा का प्रबंधन : एक आकड़े के मुताबिक देश में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की कुल संख्या २३ है जिसमे सभी 23 आईआईटी में स्नातक कार्यक्रमों के लिए सीटों की कुल संख्या 11,279 है। व्यवसायित शिक्षा के अर्न्तगत भारत में कुल 11,964 जिसमें से 2284 संस्थान सरकारी पॉलिटेक्निक है और 9680 संस्थान प्राईवेट है। जिसके अर्न्तगत 126 व्यवसायिक स्तर के प्रोग्राम चलाए जातें है।
हमारी सरकार प्रौद्योगिकी को आधुनिक बनाने का हर सम्भव प्रयास करेगी। देश की सभी प्रौद्योगिकी एवं पॉलिटेक्निक संस्थाओं को आधुनिक संसाधनों से युक्त बनाएगी। इनोवेशन रिसर्च केंद्रों को स्थापित करेगी। स्थानीय पारम्परिक हुनर के प्रशिक्षण केंद्रों को भी स्थापित करेगी। जिससे हर व्यक्ति आत्मनिर्भर बन सके।